त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: || 20||

tyaktvā karma-phalāsaṅgaṁ nitya-tṛipto nirāśhrayaḥ
karmaṇyabhipravṛitto ’pi naiva kiñchit karoti saḥ

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भावार्थ:

जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता॥20॥

Translation

Such people, having given up attachment to the fruits of their actions, are always satisfied and not dependent on external things. Despite engaging in activities, they do not do anything at all.

English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

See also  Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 8

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