21 (12), Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 21
21 (12), Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 21

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते |
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते || 21||

kārya-kāraṇa-kartṛitve hetuḥ prakṛitir uchyate
puruṣhaḥ sukha-duḥkhānāṁ bhoktṛitve hetur uchyate

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भावार्थ:

कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम ‘कार्य’ है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘करण’ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥20॥

Translation

In the matter of creation, the material energy is responsible for cause and effect; in the matter of experiencing happiness and distress, the individual soul is declared responsible.

English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

See also  श्रीमद्भागवतम् – ०० – माहात्म्यम्

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