35 (7), Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 35
35 (7), Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 35

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा |
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् || 35||

kṣhetra-kṣhetrajñayor evam antaraṁ jñāna-chakṣhuṣhā
bhūta-prakṛiti-mokṣhaṁ cha ye vidur yānti te param

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भावार्थ:

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥34॥

Translation

Those who perceive with the eyes of knowledge the difference between the body and the knower of the body, and the process of release from material nature, attain the supreme destination.

English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

See also  Bhagavad Gita: Chapter 10, Verse 20

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