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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 42

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || śhamo damas tapaḥ śhauchaṁ kṣhāntir ārjavam eva chajñānaṁ vijñānam āstikyaṁ brahma-karma svabhāva-jam भावार्थ: अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् | दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् || śhauryaṁ tejo dhṛitir dākṣhyaṁ yuddhe chāpy apalāyanamdānam īśhvara-bhāvaśh cha kṣhātraṁ karma svabhāva-jam भावार्थ: शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं॥43॥ Translation Valor, strength, fortitude, skill in weaponry, resolve never to […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 44

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् | परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् || kṛiṣhi-gau-rakṣhya-vāṇijyaṁ vaiśhya-karma svabhāva-jamparicharyātmakaṁ karma śhūdrasyāpi svabhāva-jam भावार्थ: खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: | स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु || sve sve karmaṇy abhirataḥ sansiddhiṁ labhate naraḥsva-karma-nirataḥ siddhiṁ yathā vindati tach chhṛiṇu भावार्थ: अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 46

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् | स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: || yataḥ pravṛittir bhūtānāṁ yena sarvam idaṁ tatamsva-karmaṇā tam abhyarchya siddhiṁ vindati mānavaḥ भावार्थ: जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || śhreyān swa-dharmo viguṇaḥ para-dharmāt sv-anuṣhṭhitātsvabhāva-niyataṁ karma kurvan nāpnoti kilbiṣham भावार्थ: अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता॥47॥ Translation It is better […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 48

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: || saha-jaṁ karma kaunteya sa-doṣham api na tyajetsarvārambhā hi doṣheṇa dhūmenāgnir ivāvṛitāḥ भावार्थ: अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 49

असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: |नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति || asakta-buddhiḥ sarvatra jitātmā vigata-spṛihaḥnaiṣhkarmya-siddhiṁ paramāṁ sannyāsenādhigachchhati भावार्थ: सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है॥49॥ Translation Those whose intellect is unattached everywhere, who have mastered the mind, and are free from desires by the practice […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 50

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे |समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा || siddhiṁ prāpto yathā brahma tathāpnoti nibodha mesamāsenaiva kaunteya niṣhṭhā jñānasya yā parā भावार्थ: जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू […]

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Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 54

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ् क्षति |सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् || brahma-bhūtaḥ prasannātmā na śhochati na kāṅkṣhatisamaḥ sarveṣhu bhūteṣhu mad-bhaktiṁ labhate parām भावार्थ: फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त […]